हरेक आदमी की बुद्धि का स्तर अलग होता है। जिस आदमी की जैसी क्षमता होती है, उसे उसी दर्जे के सत्य का बोध होता है। बहरहाल यह तय है कि शांति की बुनियाद सत्य है।
सत्य तक वही आदमी पहुंच सकता है जिसमें धैर्य हो, सहनशीलता हो। सहनशीलता एक ऐसा गुण है कि जो मनुष्य के लिए शांति तुरंत सुलभ कर देती है चाहे पूर्ण सत्य तक उसे पहुंचने में भले ही देर लगे। समाज में बहुत से आदमी रहते हैं। उनकी सोच और उनके रीति रिवाज, उनमें कुछ समानता होती है तो कुछ भिन्नता भी होती है बल्कि कुछ वर्ग तो अपनी कुछ सोच और कुछ रीति रिवाजों में एक दूसरे के खि़लाफ़ भी होते हैं।
इसके बावजूद वे सभी एक ही समाज में शांति के साथ रहते हैं तो इसके पीछे कारण है उनकी सहनशीलता।
सहनशीलता का मतलब यह नहीं है कि हम सभी लोगों के सभी विचारों को सत्य मान लें। नहीं, बल्कि सहनशीलता का मतलब यह है कि हम अपने संपर्क में आने वाले लोगों को उस विचार से ज़रूर परिचित करायें जिसे हम सत्य समझते हैं लेकिन सुनने वाले को उसे कुबूल करने के साथ ही उसे रद्द करने का भी पूरा हक़ है। उसे पूरी आज़ादी है कि वह जिस विचार को चाहे सत्य माने, जिस रिवाज के तहत चाहे अपनी ज़िंदगी गुज़ारे। उसके लिए आपके दिल में हमदर्दी है, हमदर्दी के तक़ाज़े के तहत आपने उसे सही बात बता दी है। आपका काम पूरा हो गया, बस अब आप उसके लिए दुआ कीजिए। विचार का बीज आपने उसके दिल की ज़मीन में बो दिया है, उसे चेतना का वृक्ष बनने और उस पर बोध का फल आने में समय लगेगा। उस समय का इंतेज़ार करने के लिए भी धैर्य चाहिए, सहनशीलता चाहिए।
मैं अपने दोस्तों और परिचितों के साथ इसी उसूल के तहत बर्ताव करता हूं। यही वजह है कि मेरे विचारों से परिचित होने के बाद उनमें मेरे लिए किसी तरह की दूरी या बैर पैदा नहीं होता, चाहे वे मुस्लिम हों या हिंदू। वे मुझे सिर्फ़ अपने सामाजिक समारोहों में ही नहीं बल्कि उन कार्यक्रमों में भी निमंत्रित करते हैं जिनकी प्रकृति ख़ालिस धार्मिक क़िस्म की होती है। वे बुलाते हैं और मैं जाता हूं। कल एक यज्ञ कार्यक्रम में जाना हुआ और आज पंडित शिवनंदन जी तीर्थ यात्रा से लौटे तो मेरे लिए प्रसाद लेकर आ गए।
हमारे विचारों की भिन्नता या विरोध हमारे लिए कभी बैर का ज़रिया नहीं बनता तो इसके पीछे कारण है सहनशीलता।
भारतीय समाज अपने स्वभाव से ही सहनशील है। यही वजह है कि अमन के दुश्मनों की लाख कोशिशों के बावजूद भी भारतीय समाज से शांति का लोप नहीं हो सका है। आज ज़रूरत इस बात की है कि जो गुण हमारे समाज में स्वभाव से है, उसे शऊर के साथ अपने अंदर विकसित किया जाए।
‘अमन का पैग़ाम‘ यही है।
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