Thursday, May 15, 2014

भय से मुक्ति ही उपचार है -सीताराम गुप्ता

भय वस्तुत: एक कल्पना मात्र है, जो हमारे मन की उपज है। यह एक नकारात्मक विचार है। मन से भय का चिंतन समाप्त हो जाना, उसका नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाना ही उपचार है। व्याधि विशेष के प्रति हमारे मन में समाया हुआ डर ही उस रोग को आमंत्रित करता है। कभी न कभी किसी न किसी रूप में हमारे मन में उस रोग की चिंता या भय के बीज चले जाते हैं, जो निरंतर पल्लवित-पुष्पित होते जाते हैं। और अन्तत: हमें बीमार कर देते हैं। यदि हम उन बीजों को मन में जमने न दें अथवा उग आने पर उन्हें जड़ से उखाड़ फेंके, तो उस व्याधि से हम सदैव के लिए मुक्त हो गए समझो। रोग मन की पैदावार है, तंदुरुस्ती भी मन की फसल है। रोग हो या स्वास्थ्य, चिंता हो या प्रसन्नता -दोनों का कारण मन है। मन द्वारा ही रोग अथवा चिंता की समाप्ति संभव है तथा मन द्वारा ही अच्छे स्वास्थ्य अथवा प्रसन्नता की प्राप्ति संभव है। लेकिन मन का नियंता कौन है? आप स्वयं अपने मन के नियंता हैं। पहले अपने मन पर नियंत्रण कीजिए। मन के चिंतन को सही दिशा में ले जाइए। अच्छे स्वास्थ्य का चिंतन कीजिए। अच्छी सेहत का तसव्वुर कीजिए। स्वयं को स्वस्थ-सुंदर तथा अनेकानेक सकारात्मक गुणों से भरपूर देखिए। मन में रोग के भय के चिंतन से मुक्त हो जाइए। जब तक भय से मुक्त नहीं होंगे, तब तक बात नहीं बनेगी। रोग के भय से मुक्त होना ही रोग मुक्त होना है। आरोग्य के लिए रोग के भय से मुक्ति, समृद्धि के लिए अभाव के भय से मुक्ति, जीवन को सम्पूर्णता से जीने के लिए मृत्यु के भय से मुक्ति, ज्ञान के लिए अज्ञानता के भय से मुक्ति, प्रकाश के लिए अंधकार के भय से मुक्ति, प्रेम के लिए घृणा के भय से मुक्ति, विजय के लिए पराजय के भय से मुक्ति, पूर्णता के लिए अपूर्णता के भय से मुक्ति, विश्वास के लिए अविश्वास के भय से मुक्ति, सत्य के लिए असत्य के भय से मुक्ति -भय से मुक्त होना ही सर्वांगीण विकास का एकमात्र मार्ग है। भय से मुक्ति मन के नियंत्रण तथा उचित दिशा निर्देश द्वारा संभव है। नेपोलियन ने कहा है, 'जिसे पराजित होने का भय है उसकी हार निश्चित है।' आपके मन की स्थिति के कारण ही न जाने कितने रज्जुरूपी महासर्प फुफकार रहे हैं, आपको भयभीत कर रहे हैं, आपका मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं, आपको पीछे हटने पर विवश कर रहे हैं। आपकी चेतना का हरण कर और जड़ बना रहे हैं। आदि शंकराचार्य कहते हैं:.. रज्जुसर्पवदात्मानं जीवोज्ञात्वा भयंवहेत। नाहं जीव: परात्मेति ज्ञातश्चेन्निर्भयो भवेत्।। अर्थात् जब जीव भ्रमवश रस्सी को समझता है सांप, तब प्रतीत होता है उसको भय। परंतु जब उसे बोध हो मैं जीव नहीं, 'हूँ परमात्मा' तब हो जाता है वह निर्भय। जोसफ मर्फी ने अपनी एक पुस्तक में एक घटना का वर्णन किया है। एक कैंसर रोगी को जब ये बताया गया कि उसकी रिपोर्ट तो किसी और कैंसर के रोगी व्यक्ति की है, जो गलती से तुम्हारी मान ली गई, तो वह व्यक्ति जो मृतप्राय हो कर बिस्तर पर पड़ा था, अचानक उठकर खड़ा हो गया और क्योंकि उसके मन ने मान लिया कि वह कैंसर का रोगी है ही नहीं, तो कुछ ही दिनों में सामान्य उपचार और देख-भाल के बाद ठीक भी हो गया। वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन व्यतीत करने लगा। इस प्रकार सकारात्मक विश्वास द्वारा दृढ़तापूर्वक मन को प्रभावित कर किसी व्याधि अथवा किसी समस्या का उपचार करना ही 'मन द्वारा उपचार' कहलाता है। और यह उपचार 'आध्यात्मिक उपचार' की श्रेणी में आता है। मन की इसी शक्ति को उर्दू शायर 'बहाद' लखनवी' ने अपने एक शेर में इस प्रकार व्यक्त किया है : ऐ जबा-ए-दिल गर तू चाहे हर चीज मु.काबिल आ जाए, मालि के लिए दो गाम चलूँ और सामने मालि आ जाए। ( लेखक की पुस्तक 'मन द्वारा उपचार' से उद्धृत)

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