Saturday, March 24, 2012

जियो तो ऐसे जियो ,जैसे हर दिन आखरी हो

"जब मैं 17 साल का था तो मैंने  पढ़ा था जो कुछ ऐसा था ,' अगर आप हर दिन को इस  तरह जिए कि मानो वह आपका आखिरी दिन है तो एक दिन आप बिलकुल सही जगह होगे .'
इस वाक्य ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला और उसके बाद से यह मेरा नियम हो गया कि मैं हर दिन अपना चेहरा आईने में देखता हूँ और अपने आप से पूंछता हूँ ,अगर आज मेरी जिंदगी का आखरी दिन हो तो क्या मैं वह करना चाहूँगा जो मैं आज करने वाला हूँ और लगातार कई दिनों तक जब इसका जबाब नहीं होता है तो मैं समझ जाता हूँ कि मुझे कुछ बदलने की जरूरत है.
कोई भी मरना नहीं चाहता. यहाँ तक कि जिन लोगो को पता है कि स्वर्ग में जायेंगे , वो भी नहीं. फिर भी मृत्यु वो गंतव्य है , जो हम सभी के हिस्से में आती है . कोई कभी इससे बच नहीं सका है . यह सब वैसा ही है जैसा उसे होना चाहिए क्योंकि मृत्यु जीवन का एकमात्र सर्वोतम अविष्कार है. यह जीवन को बदलने वाला तत्व है. यह नए के लिया रास्ता बनाने के लिए पुराने को साफ़ करता है .
आपका समय बहुत सिमित है , इसलिए किसी दुसरे के जिन्दगी जीने में उसे बर्बाद न करे . मान्यताओं के शिकंजे में न फंसे - जिसमें आप उन परिणामों के साथ जीते है , जिसके बारे में दुसरे सोचते है . दुसरे के मत और विचारों के शोर से अपने अन्दर की आवाज को दबने न दे और सबसे महत्वपूर्ण बात, अपने दिल और पूर्वाभासों का अनुसरण करने का सहस रखे .ये दोनों किसी तरह पहले से ही जानते है की आप सच में क्या बनना चाहते है . बाकि सब बांते अप्रधान है."

(पैनक्रियाज के कैंसर से लडाई में  जित  हासिल करके लौटने के तुरंत बाद स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में सन 2005 में एप्पल इंक के सी .इ .ओ. स्टीव जाब्स के कुछ शब्द )

Tuesday, March 6, 2012

अच्छा सोचिए, सेहतमंद बनिए

जिनकी सोच पॉजिटिव वे किसी भी महफिल में छा जाते हैं
लाइफ में जैसे-जैसे भौतिक सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे नेगेटिव सोच बढ़ती जा रही है। निगेटिव थिंकिंग का ही आलम है कि हर तरफ निराशा, हिंसा का वातावरण बनता जा रहा है। आइए जानें पॉजिटिव थिंकिंग के फायदे : काउंसलर के अनुसार,सकारात्मक सोच से आदमी के अंदर ऊर्जा आती है। मुश्किल वक्त भी कट जाता है।

साइकोलॉजिस्ट बताते हैं-पॉजिटिव थिंकिंग से रास्ते की मुश्किलें हल हों या न हों, मन का तनाव जरूर खत्म हो जाता है। जिनकी सोच पॉजिटिव रहती है वे किसी भी महफिल में छा जाते हैं। रिसर्च के अनुसार, सकारात्मक सोचने वालों की उम्र भी अधिक होती है। कुल मिलाकर सकारात्मक सोच 'हैप्पी लांग लाइफ' की कुंजी है। जॉब के लिए भी जब आप जाते हैं तो आपके पॉजिटिव एटीट्यूड को नोट किया जाता है।

एक बार इन्हें अपनाएं

फ्रेंड सर्कल : पॉजिटिव थिंकिंग वाले लोगों के साथ रहें। यह बहुत जरूरी है आप के आस-पास के लोग सकारात्मक सोच वाले हों। फिर देखिए कि कैसे मुश्किल हालात भी आसान हो जाते हैं।

दयालुता - इसकी शुरुआत भी आप अपने आप से करें। खुद के प्रति दयालु रहें आपकी सोच पॉजिटिव हो जाएगी। फिर अपने आसपास के लोगों को जानिए कि किसे आपकी भावनात्मक या सामाजिक जरूरत है? सबको दया की दृष्टि से देखना शुरू कीजिए आपके मन में खुद ब खुद कोमल भाव आने लगेगें।

विश्वास- जी हां, फरेब की इस दुनिया में विश्वास के साथ चलें। आपका विश्वास आपको दिशा देगा। सबसे ज्यादा जरूरी है स्वयं पर विश्वास। फिर ईश्वर पर विश्वास रखें कि वे आपके साथ कभी कुछ बुरा नहीं करेंगे बल्कि जो आपकी प्रगति के लिए बेहतर होगा वही प्रयोग आपके साथ भगवान करेगा।

प्रेरणा - जिस व्यक्ति का काम अच्छा लगे उससे प्रेरणा लें। अखबार के अलावा किताबें पढ़ने की आदत डालें। हर किसी में अच्छी बातें तलाशें और जिनसे आप प्रभावित हों व जो समाज हित में हो उसे अपने जीवन में अपनाएं।

स्माइल- सबसे अधिक जरूरी है एक प्यारी-सी, मीठी-सी स्माइल। आपका मुस्कुराना दूसरों से पहले आपको तनावमुक्त करता है। मुस्कान सोच में बदलाव लाती है।

रिलैक्स्ड रहें - दिन भर में पचासों ऐसे कारण सामने आते है जिनसे खीज होती है, स्वस्थ रहने के लिए बेहतर है कि यह खीज आपके साथ क्षण भर ही रहे। तुरंत नियंत्रण पाने की कोशिश करें। खुद को परेशानी से तुरंत दूर करना ही सेहत के लिए बेहतर है।

ध्यान बांटे- जो बात आपको ज्यादा परेशान कर रही है उससे अपना ध्यान हटा कर उन बातों की तरफ रूख कीजिए जो आपको अच्छी लगती है। जैसे ऑफिस में काम के बीच थोड़ी देर के लिए ब्रेक ले लीजिए और गूगल पर खूबसूरत फ्लॉवर्स या क्यूट बेबी सर्च कीजिए। जरूरी नहीं आप भी यही करें आप अपनी रूचि के इमेज तलाश कर सकते हैं। अगर आपको टेडी से प्यार है तो आप उसके आकर्षक फोटो देख लीजिए या फिर लिटिल बर्ड। च्वॉइस आपकी।

प्यार के बारे में सोचें- हम सभी अपने जीवन में एक बार प्यार अवश्य करते हैं। स्वस्थ रहने के लिए वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है प्यार की मधुर स्मृतियां आपको ताकत देती है। याद रहे, प्यार की अच्छी और सुखद बातें ही सोचें ना कि तकलीफदेह बातें।

प्यार के सुहाने पल मन में मीठी गुदगुदी का भाव जगाते हैं इसलिए ब्रेकअप के बजाय उससे पहले के लगाव और नए-नए आकर्षण की बातें सोचें आपको उनसे जीवन जीने की नई ऊर्जा मिलेगी।

सकारात्मक सोच जीवन-संघर्ष में आपकी सच्ची साथी है। साथ ही आपको बीमारियों से भी बचाती है।

Source: http://hi.shvoong.com/how-to/health/2203053-%E0%A4%9C-%E0%A4%A8%E0%A4%95-%E0%A4%B8-%E0%A4%9A-%E0%A4%AA/

Thursday, January 12, 2012

सक्सेस फॉर्मूला Scccess Formula

आप अपनी जिंदगी में जो भी लक्ष्य निर्धारित करते हैं या जो भी बदलाव चाहते हैं, उनके बारे में अच्छी तरह से विचार कर लें। सोच लें कि आपकी इच्छा क्या है, जिंदगी से आप क्या चाहते हैं, जिंदगी में क्या बनना चाहते हैं। फिर इसको लिख लें। 

दिन में इसे तीन बार पढ़ें और रात को सोते समय नियमित रूप से पढ़ें, ताकि यह आपके चेतन में अच्छी तरह बस जाए। बातचीत के दौरान भी अक्सर यह कहते रहें कि जीवन में आपका उद्देश्य क्या है। ऐसा करने से अपने विचार पर आपको यकीन आ जाएगा, साथ ही आपके रवैये में भी बदलाव नजर आने लगेगा। सफलता के लिए बदलाव जरूरी है। इससे आप सही और असली मुद्दों पर केंद्रित रहना सीख पाएंगे। 

जब लक्ष्य का दृढ़ विश्वास मन में समा जाता है, तो मौकों को पहचानना भी हम सीखने लगते हैं। अवसर हमारे चारों और बिखरे होते हैं और उन अवसरों का लाभ उठाना हमारे हाथ में होता है। सफल व्यक्तियों के लिए मौकों को पहचानना और उनके अनुरूप काम करना अत्यंत जरूरी है। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपको लंबे समय तक बेहतर काम भी करना होता है, ताकि आप आम आदमी से आगे निकल सकें। लगातार किसी काम को करना सोचने में भले ही आसान लगे, पर वास्तव में उसे करने के लिए दृश्य निश्चय जरूरी है। इसके अलावा अनुशासन के साथ एक रुटीन से काम करना भी आवश्यक है। 

किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए कुछ नियमों का पालन करना ही होता है। हम कहते तो हैं कि हमें अपने लक्ष्य पर खरा उतरना है, लेकिन उसके लिए कीमत चुकाने को तैयार नहीं होते। यदि आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचने में कठिनाई आ रही हो, तो उसको दूर करने का प्रयास करें। कठिनाइयों का, चुनौतियों का सामना करने का तरीका आपको खुद ही ढूंढ़ना होगा। निर्धारित लक्ष्य तक यदि हम नहीं पहुंच पाते हैं, तो भी लक्ष्य निर्धारण से हमें किसी काम को व्यवस्थित तरीके से करने की प्रेरणा मिलती रहती है, जिसका फायदा हमें जीवन में किसी-न-किसी रूप में मिलता ही है।

समय किसी के लिए नहीं ठहरता। इसलिए जो भी लक्ष्य निर्धारित करें, फटाफट उसके अनुरूप कार्य करना शुरू कर दें। साथ ही लंबे समय तक कड़ी मेहनत करें। इससे जी न चुराएं। जो भी काम करें, उसे पूरा जरूर करें। टालने की आदत आपको पीछे धकेलेगी। यह खुद से झूठ बोलने जैसा होगा। सकारात्मक रवैये के साथ काम करेंगे तो जरूर सफलता प्राप्त करेंगे।

जोगिन्दर सिंह, पूर्व निदेशक, सीबीआई

Friday, November 4, 2011

बौद्धिक बौनेपन का ख़तरा

भारत के संदर्भ में
डाक्टर एम. एस. स्वामीनाथन (जन्म 1925) भारत के मशहूर कृषि वैज्ञानिक हैं। वह भारत में हरित क्रांति (green revolution) के जनक समझे जाते हैं। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार स्टेट्समैन के अंक 4 सितम्बर 1967 में स्वामीनाथन का एक विशेष इंटरव्यू छपा था जो उन्होंने यूएनआई को दिया था। इसमें उन्होंने यह चेतावनी दी थी कि भारत के लोग अपनी खान-पान की आदतों की वजह से प्रोटीन के फ़ाक़े के शिकार हैं। इस बयान में कहा गया था कि -

‘‘अगले दो दशकों में भारत को बहुत बड़े पैमाने पर ज़हनी बौनेपन (intellectual dwarfism) के ख़तरे का सामना करना होगा, अगर प्रोटीन के फ़ाक़े का मसला हल नहीं हुआ।‘‘- ये अल्फ़ाज़ डाक्टर एम.एम.स्वामीनाथन ने यूएनआई को एक इंटरव्यू देते हुए कहे थे, जो इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के डायरेक्टर रह चुके हैं। उन्होंने कहा था कि संतुलित आहार का विचार हालांकि नया नहीं है लेकिन दिमाग़ के विकास के सिलसिले में उसकी अहमियत एक नई बायलोजिकल खोज है। अब यह बात निश्चित है कि 4 साल की उम्र में इंसानी दिमाग़ 80 प्रतिशत से लेकन 90 प्रतिशत तक अपने पूरे वज़न को पहुंच जाता है और अगर उस नाज़ुक मुद्दत में बच्चे को मुनासिब प्रोटीन न मिल रही हो तो दिमाग़ अच्छी तरह विकसित नहीं हो सकता। डाक्टर स्वामीनाथन ने कहा कि भविष्य में विभिन्न जातीय वर्गों के ज़हनी फ़र्क़ का तुलनात्मक अध्ययन इस दृष्टिकोण से भी करना चाहिये। अगर कुपोषण और प्रोटीन के फ़ाक़े के मसले पर जल्दी तवज्जो न दी गई तो अगले दो दशकों में हमें यह मन्ज़र देखना पड़ेगा कि एक तरफ़ सभ्य क़ौमों की बौद्धिक ताक़त (intellectual power) में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है और दूसरी तरफ़ हमारे मुल्क में ज़हनी बौनापन (intellectual dwarfs) बढ़ रहा है। नौजवान नस्ल को प्राटीन के फ़ाक़े से निकालने में अगर हमने जल्दी न दिखाई तो नतीजा यह होगा कि हर रोज़ हमारे देष में 10,00,000 दस लाख बौने वजूद में आयेंगे। इसका बहुत कुछ असर हमारी नस्लों पर तो मौजूदा वर्षों में ही पड़ चुका होगा।

पूछा गया कि इस मसले का हल क्या है ?

डाक्टर स्वामीनाथन ने जवाब दिया कि सरकार को चाहिये कि वह अपने कार्यक्रमों के ज़रिये जनता में प्रोटीन के संबंध में चेतना जगाये (protein conciousness) और इस सिलसिले में लोगों को जागरूक बनाये।

ग़ैर-मांसीय आहार में प्रोटीन हासिल करने का सबसे बड़ा ज़रिया दालें हैं और जानवरों से हासिल होने वाले आहार मस्लन दूध में ज़्यादा आला क़िस्म का प्रोटीन पाया जाता है। प्रोटीन की ज़रूरत का अन्दाज़ा मात्रा और गुणवत्ता दोनों ऐतबार से करना चाहिए। औसत विकास के लिए प्रोटीन के समूह में 80 प्रकार के अमिनो एसिड होना (amino acid) ज़रूरी हैं। उन्होंने कहा कि ग़ैर-मांसीय आहार में कुछ प्रकार के एसिड मस्लन लाइसिन (lysine) और मैथोनाइन (methionine) का मौजूद होना आम है जबकि ज्वार में लाइसिन की ज़्यादती उन इलाक़ों में बीमारी का कारण रही है जहां का मुख्य आहार यही अनाज है।

हालांकि जानवरों से मिलने वाले आहार का बड़े पैमाने पर उपलब्ध होना अच्छा है लेकिन उनकी प्राप्ति बड़ी महंगी है क्योंकि वनस्पति आहार को इस आहार में बदलने के लिए बहुत ज़्यादा एनर्जी बर्बाद करनी पड़ती है। एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट में दुनिया भर के सभी हिस्सों से गेहूं और ज्वार की क़िस्में मंगवाकर जमा की गईं और इस ऐतबार से उनका विश्लेषण किया गया कि किस क़िस्म में कितने अमिनो एसिड पाए जाते हैं ?

रिसर्च से इनमें दिलचस्प फ़र्क़ मालूम हुआ। इनमें प्रोटीन की मात्रा 7 प्रतिशत से लेकर 16 प्रतिशत तक मौजूद थी। यह भी पता चला कि नाइट्रोजन की खाद इस्तेमाल करके आधे के क़रीब तक उनका प्रोटीन बढ़ाया जा सकता है।

किसानों के अन्दर प्रोटीन के संबंध में चेतना पैदा करने के लिए डाक्टर स्वामीनाथन ने यह सुझाव दिया था कि गेहूं की ख़रीदारी के लिए क़ीमतों को इस बुनियाद पर तय किया जाए कि क़िस्म में कितना प्रोटीन पाया जाता है। उन्होंने बताया कि एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट ग़ल्ले के कुछ बाज़ारों में प्रोटीन जांच की एक सेवा शुरू करेगा और जब इत्मीनान बक्श तथ्य जमा हो जाएंगे तब यह पैमाना (creterion) क़ीमत तय करने की नीति में शामिल किया जा सकेगा। ग़ल्ले की मात्रा को बढ़ाने और उसकी क़िस्म (quality) को बेहतर बनाने के दोतरफ़ा काम को नस्ली तौर इस तरह जोड़ा जा सकता है कि ज़्यादा फ़सल देने वाले और ज़्यादा बेहतर क़िस्म के अनाज, बाजरे और दालों की खेती की जाए। बौद्धिक बौनेपन (intellectual dwarfism) का जो ख़तरा हमारे सामने खड़ा है, उसका मुक़ाबला करने का यह सबसे कम ख़र्च और फ़ौरन क़ाबिले अमल तरीक़ा है। (स्टेट्समैन, दिल्ली, 4 सितम्बर 1967)
डाक्टर स्वामीनाथन के उपरोक्त बयान के प्रकाशन के बाद विभिन्न अख़बारों और पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा की गई। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस (7 सितम्बर 1967) ने अपने संपादकीय में जो कुछ लिखा था, उसका अनुवाद यहां दिया जा रहा है-
‘इंडस्ट्री की तरह कृषि में भी हमेशा यह मुमकिन नहीं होता कि एक क्रियान्वित नीति के नतीजों का शुरू ही में अन्दाज़ा किया जा सके। इस तरह जब केन्द्र की सरकार ने अनाज की क़ीमत के सिलसिले में समर्थन नीति अख्तियार करने का फ़ैसला किया तो मुश्किल ही से यह सन्देह किया जा सकता था कि ग़ल्ले की बहुतायत के बावजूद प्रोटीन के फ़ाक़े (protein hunger) का मसला सामने आ जाएगा-जैसा कि इंडियन एग्रीकल्चरल इंस्टीच्यूट के डायरेक्टर डाक्टर स्वामीनाथन ने निशानदेही की है। ग़ल्लों पर ज़्यादा ऐतबार की ऐसी स्थिति पैदा होगी जिससे अच्छे खाते-पीते लोग भी कुपोषण (malnutrition) में मुब्तिला हो जाएंगे। जो लोग प्रोटीन के फ़ाक़े से पीड़ित होंगे , शारीरिक कष्टों के अलावा उनके दिमाग़ पर भी बुरे प्रभाव पड़ेंगे। डाक्टर स्वामीनाथन के बयान के मुताबिक़ यह होगा कि बच्चों की बौद्धिक क्षमता पूरी तरह विकसित न हो पाएगी। क्योंकि इनसानी दिमाग़ अपने वज़न का 80 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत तक 4 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पूरा कर लेता है, इसलिए इस कमी के नतीजे में एक बड़ा नुक्सान मौजूदा बरसों में ही हो चुका होगा। जिसका नतीजा यह होगा कि हमारे देश में बौद्धिक बौनापन (intellectual dwarfism) वजूद में आ जाएगा। इस चीज़ को देखते हुए मौजूदा कृषि नीति पर पुनर्विचार ज़रूरी है।
मगर वे पाबंदियां (limitations) भी बहुत ज़्यादा हैं जिनमें सरकार को अमल करना होगा। सबसे पहले यह कि कृषि पैदावार को जानवरों से मिलने वाले प्रोटीन में बदलना बेहद महंगा है। सरकार ने हालांकि संतुलित आहार (balanced diet) और मांस, अंडे और मछली के ज़्यादा मुहिम चलाई है लेकिन उसके बावजूद जनता आहार संबंधी अपनी आदतों (food habits) को बदलने में बहुत सुस्त है।
आम तौर पर भूख का मसला, जानवरों को पालने की मुहिम चलाने में ख़र्च का मसला और लोगों की आहार संबंधी आदतों (food habits) को बदलने की कठिनाई वे कारण हैं जिनकी वजह से सरकार को कृषि की बुनियाद पर अपनी नीति बनानी पड़ती है, लेकिन निकट भविष्य को देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि सरकार स्वामीनाथन की चेतावनी को नज़रअन्दाज़ न कर सकेगी। ऐसा मालूम होता है कि दूरगामी परिणाम के ऐतबार से कृषि नीति की कठिनाईयों को अर्थशास्त्र के बजाय विज्ञान हल करेगा। अनुभव से पता चला है कि अनाज ख़ास तौर पर गेहूं को प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाती है।

इसके बावजूद यह बात संदिग्ध है कि सिर्फ़ ग़ल्ले की पैदावार के तरीक़े में तब्दीली इस समस्या का समाधान साबित हो पाएगी। जब तक प्रोटीन की उत्तम क़िस्में रखने वाले गेहूं न खोज लिए जाएं। जब तक ऐसा न हो सरकार को चाहिए कि दालों और पशुपालन को इसी तरह प्रोत्साहित करे जिस तरह वह अनाज को प्रोत्साहित करती है।‘ (इंडियन एक्सप्रेस, 7 सितम्बर 1967)
जैसा कि मालूम है कि भारत को अगले बीस बरसों में एक नया और बहुत भयानक ख़तरा पेश आने वाला है। यह ख़तरा कृषि केन्द्र के डायरेक्टर के अल्फ़ाज़ में ‘बौद्धिक बौनेपन‘ का ख़तरा है। इसका मतलब यह है कि हमारी आने वाली नस्लें जिस्मानी ऐतबार से ज़ाहिरी तौर पर तो बराबर होंगी लेकिन बौद्धिक योग्यता के ऐतबार हम दुनिया की दूसरी सभ्य जातियों से पस्त हो चुके होंगे।
यह ख़तरा जो हमारे सामने है, उसकी वजह डाक्टर स्वामीनाथन के अल्फ़ाज़ में यह है कि हमारा आहार में प्रोटीन की मा़त्रा बहुत कम होती है। यहां की आबादी एक तरह के प्रोटीन के फ़ाक़े में मुब्तिला होती जा रही है। प्रोटीन भोजन का एक तत्व है जो इनसानी जिस्म के समुचित विकास के लिए अनिवार्य है। यह प्रोटीन अपने सर्वोत्तम रूप में मांस से हासिल होता है। मांस का प्रोटीन न सिर्फ़ क्वालिटी में सर्वोत्तम होता है बल्कि वह अत्यंत भरपूर मात्रा में दुनिया में मौजूद है और सस्ता भी है।

समापन
हिस्ट्री ऑफ़ थॉट का अध्ययन बताता है कि विचार के ऐतबार से इनसानी इतिहास के दो दौर हैं। एक विज्ञान पूर्व युग (pre-scientific era) और दूसरा विज्ञान के बाद का युग(post-scientific era)। विज्ञान पूर्व युग में लोगों को चीज़ों की हक़ीक़त मालूम न थी, इसलिए महज़ अनुमान और कल्पना के तहत चीज़ों के बारे में राय क़ायम कर ली गई। इसलिए विज्ञान पूर्व युग को अंधविश्वास का युग (age of superstition) कहा जाता है। उपरोक्त ऐतराज़ दरअस्ल उसी प्राचीन युग की यादगार है। यह ऐतराज़ दरअस्ल अंधविष्वासपूर्ण विचारों की कंडिशनिंग के तहत पैदा हुआ, जो परम्परागत रूप से अब तक चला आ रहा है।

अंधविश्वास के पुराने दौर में बहुत से ऐसे विचार लोगों में प्रचलित हो गए जो हक़ीक़त के ऐतबार से बेबुनियाद थे। विज्ञान का युग आने के बाद इन विचारों का अंत हो चुका है। मस्लन सौर मण्डल बारे में पुरानी जिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी ख़त्म हो गई और उसकी जगह हेलिओ-सेन्ट्रिक थ्योरी आ गई। इसी तरह मॉडर्न केमिस्ट्री के आने के बाद पुरानी अलकैमी ख़त्म हो गई। इसी तरह मॉडर्न एस्ट्रोनोमी के आने के बाद पुरानी एस्ट्रोलोजी का ख़ात्मा हो गया, वग़ैरह वग़ैरह। उपरोक्त ऐतराज़ भी इसी क़िस्म का एक ऐतराज़ है और अब यक़ीनी तौर पर उसका ख़ात्मा हो जाना चाहिए।

गैलीलियो 17वीं षताब्दी का इटैलियन साइंटिस्ट था। उसने पुराने टॉलमी नज़रिये से मतभेद करते हुए यह कहा कि ज़मीन सौर मण्डल का केन्द्र नहीं है, बल्कि ज़मीन एक ग्रह है जो लगातार सूरज के गिर्द घूम रहा है। यह नज़रिया मसीही चर्च के अक़ीदे के खि़लाफ़ था। उस वक़्त चर्च को पूरे यूरोप में प्रभुत्व हासिल था। सो मसीही अदालत में गैलीलियो को बुलाया गया और सुनवाई के बाद उसे सख़्त सज़ा दी गई। बाद में उसकी सज़ा में रियायत करते हुए उसे अपने घर में नज़रबंद कर दिया गया। गैलीलियो उसी हाल में 8 साल तक रहा, यहां तक कि वह 1642 ई. में मर गया।

इस वाक़ये के तक़रीबन 400 साल बाद मसीही चर्च ने अपने अक़ीदे पर पुनर्विचार किया। उसे महसूस हुआ कि गैलीलियो का नज़रिया सही था और मसीही चर्च का अक़ीदा ग़लत था। इसके बाद मसीही चर्च ने साइंटिफ़िक कम्युनिटी से माफ़ी मांगी और अपनी ग़लती का ऐलान कर दिया। यही काम उन लोगों को करना चाहिए जो अतिवादी रूप से वेजिटेरियनिज़्म के समर्थक बने हुए हैं। यह नज़रिया अब साइंटिफ़िक रिसर्च के बाद ग़लत साबित हो चुका है। अब इन लोगों को चाहिए कि वे अपनी ग़लती स्वीकार करते हुए अपने नज़रिये को त्याग दें, वर्ना उनके बारे में कहा जाएगा कि वे विज्ञान के युग में भी अंधविष्वासी बने हुए हैं।
इसे पढने के लिए यहाँ क्लिक करें 

The message of Eid-ul- adha विज्ञान के युग में कुर्बानी पर ऐतराज़ क्यों ?,

अन्धविश्वासी सवालों के वैज्ञानिक जवाब ! - Maulana Wahiduddin Khan (Part-2)

Wednesday, June 15, 2011

निगमानंद का ख़ून मौजूद है ब्लॉग महोत्सव में मिलने वाले मोमेंटो पर, निशंक जी के कारण



‘निगमानंद के निधन के लिए निशंक सरकार दोषी’
नई दिल्ली ! गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन की भेंट चढ़े हरिद्वार के स्वामी निगमानंद की मौत का मामला राजनीतिक तूल पकड़ता जा रहा है। केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जयराम रमेश ने स्वामी के दुखद निधन के लिए उत्तराखंड की भाजपा सरकार को दोषी ठहराया है। जयराम ने कहा कि उन्होंने मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को डेढ़ साल पहले इस मसले पर पत्र लिखा था लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई।

आज समाचार पत्रों में यह चर्चा आम है। राजनेता तो राजनीति करेंगे ही। गाय मरे या सन्यासी ये लोग अपनी राजनीति का मौक़ा ढूंढते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि एक ब्लॉगर हर जगह अपने ब्लॉग के लिए एक पोस्ट ढूंढ लेता है। न तो राजनीति गंदी है और न ही ब्लॉगिंग कोई बुरी बात है। बुरी बात यह है कि ब्लॉगर्स का मक़सद सच को सामने लाने के बजाय महज़ ईनाम बांटना और बटोरना ही रह जाए बिल्कुल उधार की चीनी की तरह।
दिल्ली में जिस समय उत्तराखंड के मुख्यमंत्री दिल्ली के ब्लॉगोत्सव 2010 के समारोह में हिंदी ब्लॉगर्स को ईनाम का लॉलीपॉप बांट रहे थे। उस समय स्वामी निगमानंद जी अनशन पर थे। मुख्यमंत्री को उस समय होना चाहिए था स्वामी जी के पास और वह हॉल में बैठे ‘कलाकारों का नाटक‘ देख रहे थे। 
मुख्यमंत्री की लापरवाही निगमानंद जी के प्राण जाने का कारण बनी। निगमानंद का ख़ून निशंक जी के हाथों पर है, इसमें किसी को कोई भी शंका नहीं है। 
ब्लॉगर्स को इन्हीं के ‘हाथों‘ ईनाम मिले हैं। सो अगर आप ग़ौर से देखेंगे तो हरेक मोमेंटो पर निगमानंद के ख़ून के धब्बे आपको ज़रूर मिलेंगे।
अब यही हिंदी ब्लॉगर हरेक जगह अफ़सोस जता रहे हैं और एक बूढ़े जनवादी महोदय उन्हें ‘शहीद‘ क़रार दे रहे हैं और यह स्वीकारते ही नहीं हैं कि उनके मर्डर में एक हिस्सा हम ईनामख़ोर ब्लॉगर्स का भी है।
अब जब भी आपकी नज़र दिल्ली में मिले उस मोमेंटो और मुख्यमंत्री निशंक पर जाएगी तो आपको निगमानंद का ख़ून हमेशा वहां नज़र आएगा। अब यह मोमेंटो किसी ब्लॉगर की उपलब्धि की याद के साथ साथ निगमानंद के ख़ून की याद भी सदा दिलाता रहेगा। इस मोमेंटो को कूड़े के ढेर पर फेंक दे, ऐसा कोई ब्लॉगर इन ईनाम के लालचियों में है नहीं।
यही है हिंदी ब्लॉगर्स का भ्रष्टाचार। ख़ुद भ्रष्ट हैं और दूसरों को नियम-क़ानून बता रहे हैं।
आदमी ज़मीर बेच डाले तो फिर कुछ ही करता फिरे।
सुना है कि ऐसा ही ब्लॉगोत्सव दोबारा फिर होने वाला है।
ख़ुदा ख़ैर करे, देखिए इस बार ‘हाथ किसके और कैसे होंगे ?

Saturday, June 11, 2011

सबसे ज़्यादा ईमान वाला कौन ?

अल्लाह के रसूल सल्-लल्लाहु वसल्लम ने फ़रमाया , 'सबसे ज़्यादा ईमान वाला शख़्स वह है जो अपनी औरत के साथ नर्मी और मुहब्बत का बर्ताव करे और तुम में बेहतर वह शख़्स वह है जो अपनी औरत के साथ बेहतर हो।'
किताब - मियाँ बीवी के हुक़ूक़ पृ. 24 लेखक : हज़रत मौलाना अब्दुल ग़नी , जसीम बुक डिपो दिल्ली

Saturday, June 4, 2011

सच्ची सुंदरता क्या है ? Real Beauty - Dr. Anwer Jamal

डा. अनवर जमाल और BK संगीता जी आध्यात्मिक चर्चा करते हुए 
ख़ूबसूरत चेहरा और सुंदर शरीर किसे नहीं भाता लेकिन ज़्यादातर यह एक क़ुदरती तौर पर ही लोगों को मिलता है। किसी के हाथ में नहीं है कि वह चाहे तो अपनी लंबाई बढ़ा ले। मॉडलिंग करने वाले औरत-मर्द पैदाइशी तौर पर ही ख़ूबसूरत होते हैं। वे तो सिर्फ़ उसकी देखभाल करके उसे निखारते भर हैं। जो चीज़ आदमी के अपने बस में न हो, वह उसकी ख़ूबसूरती जांचने का सही पैमाना नहीं हो सकती, ख़ासकर तब जबकि इंसान मात्र शरीर ही नहीं होता। उसमें मन-बुद्धि और आत्मा जैसी हक़ीक़तें भी पोशीदा होती हैं।
सुंदर व्यक्तित्व कहलाने का हक़दार वही हो सकता है, जिसके विचार और और कर्म अच्छे हों। जिसके विचार सकारात्मक हैं, उसका कर्म भी सार्थक होगा, यह तय है। ऐसा इंसान प्रेम, शांति, सहयोग और उपकार के गुणों से युक्त होता है। दुख भोग रही दुनिया के दुखों को अपनी हद भर कोशिश करता है। दूसरों की भलाई के लिए और अपने देश की रक्षा में अपनी जान देने वाले इंसान इन्हीं लोगों में से होते हैं।

इंसान के मन में प्रायः चार प्रकार के विचार पाए जाते हैं
1.ज़रूरी विचार- अपने वुजूद को बाक़ी रखने के लिए इंसान को खाने-पीने, मकान-लिबास, शिक्षा और इलाज की ज़रूरत होती है। इन्हें पाने के लिए जो विचार होते हैं। वे ज़रूरी विचार की श्रेणी में आते हैं।
2. व्यर्थ विचार- अपने अतीत और अपने भविष्य के बारे में अत्यधिक सोचना इसका उदाहरण है।
3. नकारात्मक विचार- ग़ुस्सा, अहंकार, जलन और लालच इंसान को नकारात्मकता से भर देते हैं।
4. सकारात्मक विचार- नकारात्मक विचारों के विपरीत प्रेम, शांति और परोपकार के विचार सकारात्मक विचार कहलाते हैं। इंसान की कामयाबी की बुनियाद और सभ्यता के विकास का आधार यही विचार होते हैं। सकारात्मक विचार ही इंसान को सबके लिए उपयोगी बनाते हैं और समाज में लोकप्रियता दिलाते हैं।
अपने विचारों को जानने और संवारने की यह कला ‘थॉट मैनेजमेंट‘ कहलाती है। इस कला के माध्यम से आदमी अपने मन को सुमन बना सकता है। एक सुंदर व्यक्तित्व कहलाने का हक़दार वास्तव में वही है जिसने अपने मन को सुमन बना लिया है।