जब आदमी को अपनी पैदाइश का असली मक़सद और उसे पाने का सही ज्ञान नहीं होगा तो चाहे उसकी नीयत कितनी भी नेक क्यों न हो ?जीवन भर वह ख़ुद भी भटकेगा और दूसरों को भी भटकाएगा।इस्लाम में दीक्षित होना एक निंदनीय सा कर्म मान लिया जाता है और धर्म जो दे सकता था, उसे छोड़कर अपनी समझ से अपनी सुविधानुसार बहुत से दर्शन गढ़ लिए जाते हैं और अफ़सोस यह कि फिर उनका पालन करना भी वे अनिवार्य नहीं मानते। इंसान को सोचने-समझने की आज़ादी है और उसकी यही आज़ादी उसके लिए जी का जंजाल है क्योंकि इंसान इसका इस्तेमाल मालिक के हुक्म के मुताबिक़ न करके अपने मन के मुताबिक़ करता है। हरेक का मन और उसका चिंतन अलग है, सो रास्ते और दिशाएं भी अलग हो जाते हैं और उनके फ़ायदे और मक़सद भी। इस श्राप से मुक्ति दिला सके ऐसा कोई दर्शन दुनिया में न तो था और न है और न ही होगा।
कल्याण केवल धर्म में है, इस्लाम में है।
जो मानना चाहे मान ले, सत्य तो यही है।
यह पक्तियां लोकसंघर्ष पत्रिका के एक लेख को देखकर कहनी पड़ीं।
लोग भटकते रहें और हम देखते रहें, हमसे ऐसा होता भी तो नहीं।
इस लिंक पर जाकर आप भी उस लेख को देखिए जिसमें डा. लोहिया के चिंतन और उनकी कार्यप्रणाली का एक संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी विचारधारा के विरोधाभास और उसकी नाकामी को रेखांकित किया गया है।
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